Tuesday, August 15, 2017

लग गयी तम की नज़र दिनमान को, आंधियां सब ले उड़ी अभिमान को |

लग गयी तम की नज़र दिनमान को,


           आंधियां सब ले उड़ी अभिमान को |


वक़्त की साज़िश यक़ीनन है बहुत,


            बस मिलेंगी कुछ घडी इंसान को ||


 


काली घटाओं से घिरा आज क्यूँ,


            मेरे दर्प का जो कभी अहसास था,


बादलों में खो रहा अस्तित्व है,


            गर्व बनकर जो कभी मेरे पास था,


मृत्यु शायद अब हरे इस दर्द को,


             लेके चले गोदी में उठा संतान को |


वक़्त की साज़िश यक़ीनन है बहुत,


            बस मिलेंगी कुछ घडी इंसान को ||


 


स्रष्टि की कैसी नियति, कौन जाने,


           फिर कहीं जन्मे, किसी भी रूप में,


फिर सर उठाएं वासना संसार की,


           फिर छाँव मिले  या चलें यूं धूप में,


फिर रचे संसार प्रणय की वेदना,


           फिर मिले रति रात में अन्जान को |


वक़्त की साज़िश यक़ीनन है बहुत,


           बस मिलेंगी कुछ घडी इंसान को ||


 


यूँ चले संसार समय की गति लिए,


           युग बदलते जा रहे सब अनवरत,


एक क्षण विश्राम का ना मिल सका,


           गूढ़ जीवन की खुली ना एक परत,


इस बड़े ब्रम्हाण्ड में हम हैं ही क्या,


           कोई  बतलाये मतवाले इंसान को | 


वक़्त की साज़िश यक़ीनन है बहुत,


           बस मिलेंगी कुछ घडी इंसान को ||


 

No comments:

Post a Comment