Sunday, February 18, 2018





प्रिय मित्रों,
इतवार की दोपहर और बहुत सारा काम. और जब आप काम से थकते हैं ना तो मन करता है की कुछ रचनात्मक हो जाए | और बस यही रचनात्मकता रचना धर्मिता को नई आयाम देने लगती है | अभी अभी सृजित की है ये कविता |




स्वप्न टूटते ही नए स्वप्न को आकार दो,

जीत की है रीति यही नये कुछ प्रकार दो |

फाड़ दो हार के बादलों को आज तुम,

कर्म की प्रत्यंचा खींच धनुष को टंकार दो ||



हैं खोदते खदान रहे हीरे की तलाश में,

हाथ कुछ लगा नहीं झूठे बस कयास में |

कौन मौन रख यहाँ शांत हो चला गया,

और कौन रुक गया कभी थोड़े प्रयास में ||



मनुज जन्म है मिला जीत का अधिकार दो,

बाजुओं को भींच आज भाग्य को संवार दो |

फाड़ दो हार के बादलों को आज तुम,

कर्म की प्रत्यंचा  खींच धनुष को टंकार दो |१|



क्या हुआ जो ना मिला द्रौण सा कोई अगर,

क्या हुआ जो ना मिली चाहतों की डगर |

क्या हुआ जो रूठता भाग्य भी रहा सदा,

खोजता तू जा मगर स्वप्न सा सजा नगर ||



मौन तोड़ आज अभी वाणी को चीत्कार दो,

राह में जो रोड़े डाले उसे राह में दुत्कार दो |

फाड़ दो हार के बादलों को आज तुम,

कर्म की प्रत्यंचा  खींच धनुष को टंकार दो |२|

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