Friday, June 1, 2018

रिश्ते जब रिसते हैं,
हम सब  पिसते हैं.|

आखिर क्या है ये रिश्तों के मध्य जीतने की गणित . कौन सा फार्मूला लगता है और कैसे हम निभा ले जाते हैं .
शायद ये आत्म चिन्तन का विषय है, या फिर मनोवैज्ञानिको के लिए "TRANSACTION ANALYSIS" को समझाने का एक और मौका....जो भी हो... कुछ टूटे फूटे शब्दों से एक गीत बना है. नज़र डालिए.



मन बहका बावरा जाने क्यूँ,
जाने, मन को क्या पाना था |
बस सम्बन्धों केअनुबंधों में,
पल दो पल को इतराना था ||

म्रग तृष्णा सा संसार दिखे,
रिश्तों में भी व्यापार दिखे |
संयम खो बैठे आज अगर,
शब्दों में भी औज़ार दिखे |

अपनी मर्जी से सोचो तुम,
क्या हमें तुम्हे बहकाना था |
मन बहका बावरा जाने क्यूँ,
जाने, मन को क्या पाना था |१|

बात रहे यदि मर्यादा की,
ना थोड़ी, ना ज़ियादा की |
कहां कौन फिर मौन रहे,
लाज रखी यदि वादा की |

निभा सका ना जो इसको,
उसे जीवन भर पछताना था |
मन बहका बावरा जाने क्यूँ,
जाने, मन को क्या पाना था |२|


Sunday, February 18, 2018





प्रिय मित्रों,
इतवार की दोपहर और बहुत सारा काम. और जब आप काम से थकते हैं ना तो मन करता है की कुछ रचनात्मक हो जाए | और बस यही रचनात्मकता रचना धर्मिता को नई आयाम देने लगती है | अभी अभी सृजित की है ये कविता |




स्वप्न टूटते ही नए स्वप्न को आकार दो,

जीत की है रीति यही नये कुछ प्रकार दो |

फाड़ दो हार के बादलों को आज तुम,

कर्म की प्रत्यंचा खींच धनुष को टंकार दो ||



हैं खोदते खदान रहे हीरे की तलाश में,

हाथ कुछ लगा नहीं झूठे बस कयास में |

कौन मौन रख यहाँ शांत हो चला गया,

और कौन रुक गया कभी थोड़े प्रयास में ||



मनुज जन्म है मिला जीत का अधिकार दो,

बाजुओं को भींच आज भाग्य को संवार दो |

फाड़ दो हार के बादलों को आज तुम,

कर्म की प्रत्यंचा  खींच धनुष को टंकार दो |१|



क्या हुआ जो ना मिला द्रौण सा कोई अगर,

क्या हुआ जो ना मिली चाहतों की डगर |

क्या हुआ जो रूठता भाग्य भी रहा सदा,

खोजता तू जा मगर स्वप्न सा सजा नगर ||



मौन तोड़ आज अभी वाणी को चीत्कार दो,

राह में जो रोड़े डाले उसे राह में दुत्कार दो |

फाड़ दो हार के बादलों को आज तुम,

कर्म की प्रत्यंचा  खींच धनुष को टंकार दो |२|

Saturday, January 27, 2018

बहुत अरसा हो गया कुछ काव्य सृजन किये हुए. आज मन कर रहा था की कुछ लिखते हैं. बस विचार आते गए और सृजन होता गया.