Tuesday, December 20, 2016

दिन जल्दी ढल जाते हो, बस कहने को कल आते हो 
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प्रिय दोस्तों,
कभी कभी ऐसा नही लगता की समय बहुत तेजी से पंख फैलाकर उड़ता चला जा रहा है |
और लो यहाँ आइना देखा और महसूस हुआ की उम्र ही फिसल गयी मुट्ठी में बंद रेत की मानिंद |
ये जो बारह घंटों की मशक्क़त है ना, बस यही तो है जो कुछ का कुछ किसी को कुछ भी बना देती है | तो दिन से उसके छोटे होने की शिकायत के साथ इस कविता के उत्तरार्ध में आशावाद के चरमोत्कर्ष से भी रूबरू कराता हूँ आपको |
इसमें मैंने "हेमल" शब्द का भी इस्तेमाल किया है जिसका मतलब "रक्त" होता है | उम्मीद है एक बार फिर मैंने निभाने की कोशिश की है |

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