Thursday, December 8, 2016


तुम नदी सी बहो चंचला 
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आज मौसम काफी अच्छा हो रहा था. सुबह से ही धूप बादलों संग आँखमिचौली कर रही थी, घटाएं रह रह कर अंगराई ले रही थीं, हवा के झोंके पायल की धून पर नृत्य कर रही थीं, आज रूप-श्रृंगार की मादकता में लिप्त कवि बन जाने का मन कर रहा था, बरसात और है क्या, किसी प्रेमी के उसकी प्रेमिका के हेतु सन्देश. सावन धरती के उबटन श्रृंगार का समय, जब वसुधा के रूप को सींचा जाता है, हर ओर प्रेम ही महकता है, हवाओं की थिरकन से लेकर, वातावरण के यौवन तक. और ऐसे में कोई चंचला नदी आकर गिरे सब्र के बाँध पर... तो ........................बस शब्दों की शरारत और सुरमई हरारत आपके नज़र |||

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