Thursday, December 8, 2016


 सवेरे का सूरज निहारा था पल भर
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हमारे आस-पास जो दुनिया है वह दरअसल बाज़ार है और ये बाज़ार ही भाषा की टकसाल भी है । आए दिन न जाने कितने शब्दों की यहाँ घिसाई, ढलाई होती है । न जाने कितने शब्दों का यहाँ रूप, रंग, चरित्र बदल जाता है| अब प्रेम जैसे अनमोल भाव को शब्द अपनी अपनी सामर्थ से सजाते संवारते रहते हैं | अगर संयोग की अनुभूति है, तो वियोग का दर्द भी | बस ऐसे ही शब्दों की उठा पटक से मन के भाव काव्य प्रवाह का रूप धारण करते रहते हैं | आइये आप भी उठाइए आनंद ..................इस वियोग सृंगार का \ जहाँ शिकायतें तो क्या हैं बस दर्द ही दर्द है................

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